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“ज़िंदगी यूँ हुई बसर तन्हा
क़ाफिला साथ और सफर तन्हा
अपने साये से चौंक जाते हैं
उम्र गुज़री है इस कदर तन्हा
रात भर बोलते हैं सन्नाटे
रात काटे कोई किधर तन्हा
दिन गुज़रता नहीं है लोगों में
रात होती नहीं बसर तन्हा
हमने दरवाज़े तक तो देखा था
फिर न जाने गए किधर तन्हा.”
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“आदतन तुम ने कर दिए वादे
आदतन हम ने ऐतबार किया
तेरी राहों में हर बार रुक कर
हम ने अपना ही इन्तज़ार किया
अब ना माँगेंगे ज़िन्दगी या रब
ये गुनाह हमने एक बार किया.”
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“आँखों में जल रहा है क्यूँ बुझता नहीं धुआँ
उठता तो है घटा-सा बरसता नहीं धुआँ
चूल्हे नहीं जलाये या बस्ती ही जल गई
कुछ रोज़ हो गये हैं अब उठता नहीं धुआँ
आँखों के पोंछने से लगा आँच का पता
यूँ चेहरा फेर लेने से छुपता नहीं धुआँ
आँखों से आँसुओं के मरासिम पुराने हैं
मेहमाँ ये घर में आयें तो चुभता नहीं धुआँ.”
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“ऐ मौत उन्हें भुलाए जमाने गुजर गए
आ जा कि जहर खाए जमाने गुजर गए
ओ जाने वाले ! आ कि तेरे इंतजार में
रास्ते को घर बनाए जमाने गुजर गए
गम है न अब खुशी है न उम्मीद है न आस
सब से निजात पाए जमाने गुजर गए
क्या लायक-ए-सितम भी नहीं अब मैं दोस्त
पत्थर भी घर में आए जमाने गुजर गए
जाने बहार फूल नहीं आदमी हूं मैं
आ जा कि मुस्कुराए जमाने गुजर गए
क्या-क्या तवक्कोअत थी आहों से ऐ खुमार
यह तीर भी चलाए जमाने गुजर गए.
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