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अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो?
मैने माना के तुम इक पैकर-ए-रानाई हो
चमन-ए-दहर में रूह-ए-चमन आराई हो
तलत-ए-मेहर हो फ़िरदौस की बरनाई हो
बिन्त-ए-महताब हो गर्दूं से उतर आई हो
मुझसे मिलने में अब अंदेशा-ए-रुसवाई है
मैने खुद अपने किये की ये सज़ा पाई है
ख़ाक में आह मिलाई है जवानी मैने
शोलाज़ारों में जलाई है जवानी मैने
शहर-ए-ख़ूबां में गंवाई है जवानी मैने
ख़्वाबगाहों में गंवाई है जवानी मैने
हुस्न ने जब भी इनायत की नज़र ड़ाली है
मेरे पैमान-ए-मोहब्बत ने सिपर ड़ाली है
उन दिनों मुझ पे क़यामत का जुनूं तारी था
सर पे सरशरी-ओ-इशरत का जुनूं तारी था
माहपारों से मोहब्बत का जुनूं तारी था
शहरयारों से रक़ाबत का जुनूं तारी था
एक बिस्तर-ए-मखमल-ओ-संजाब थी दुनिया मेरी
एक रंगीन-ओ-हसीं ख्वाब थी दुनिया मेरी
क्या सुनोगी मेरी मजरूह जवानी की पुकार
मेरी फ़रियाद-ए-जिगरदोज़ मेरा नाला-ए-ज़ार
शिद्दत-ए-कर्ब में ड़ूबी हुई मेरी गुफ़्तार
मै के खुद अपने मज़ाक़-ए-तरब आगीं का शिकार
वो गुदाज़-ए-दिल-ए-मरहूम कहां से लाऊँ
अब मै वो जज़्बा-ए-मासूम कहां से लाऊँ
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जिगर और दिल को बचाना भी है
नज़र आप ही से मिलाना भी है
महब्बत का हर भेद पाना भी है
मगर अपना दामन बचाना भी है
ये दुनिया ये उक़्बाकहाँ जाइये
कहीं अह्ले -दिलका ठिकाना भी है?
मुझे आज साहिल पे रोने भी दो
कि तूफ़ान में मुस्कुराना भी है
ज़माने से आगे तो बढ़िये ‘मजाज़’
ज़माने को आगे बढ़ाना भी है
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